Saheen baug symbol of democracy, unity of India

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Ram puniyani.   Siyasat.net

इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारी दुनिया में प्रजातंत्र के कदम आगे, और आगे बढ़ते चले जा रहे हैं. विभिन्न देशों में जहाँ ऐसे कारक और शक्तियां सक्रिय हैं जो प्रजातंत्र को मजबूती दे रहे हैं वहीं कुछ ताकतें उसे कमज़ोर करने की साजिशें भी रच रहीं हैं. परन्तु कुल मिलाकर दुनिया सैद्धांतिक प्रजातंत्र से असली प्रजातंत्र की ओर बढ़ रही है.. असली प्रजातंत्र में समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व केवल संविधान और कानून की किताबों तक सीमित नहीं रहते. वहां सभी नागरिकों को वास्तविक स्वतंत्रता और समानता हासिल होती है और लोगों के बीच सद्भाव और भाईचारा होता है. भारत के प्रजातंत्रीकरण की शुरुआत आधुनिक शिक्षा और संचार व यातायात के साधनों के विकास के साथ हुई. महात्मा गाँधी ने सन 1920 में असहयोग आन्दोलन प्रारंभ किया जिसमें आम लोगों ने भागीदारी की. भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन आगे चल कर दुनिया का सबसे बड़ा जनांदोलन बना.

भारत के संविधान का मूल चरित्र प्रजातान्त्रिक है और वह प्रजातान्त्रिक मूल्यों से ओतप्रोत है. उसकी शुरुआत ही इन शब्दों से होती है, “हम भारत के लोग”. हमारे संविधान और देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु की नीतियों ने देश में प्रजातंत्र की जड़ों को मजबूती दी. सन 1975 में देश में आपातकाल लागू कर दिया गया. आपातकाल के दौरान जनता के प्रजातान्त्रिक अधिकारों का हनन हुआ. दो साल बाद आपातकाल हटा लिया गया और प्रजातांत्रिक अधिकार बहाल हो गए.

सन 1990 के दशक में राममंदिर आन्दोलन की शुरुआत हुई और यहीं से देश के प्रजातान्त्रिक चरित्र पर हमले भी शुरू हो गए. सन 2014 में केंद्र में भाजपा के शासन में आने के साथ, प्रजातान्त्रिक मूल्यों के क्षरण की प्रक्रिया में तेजी आई. नागरिक स्वतंत्रताओं, बहुवाद और सहभागिता पर आधारित राजनैतिक संस्कृति का ह्रास होने लगा. सन 2019 में प्रजातंत्र के सूचकांक में भारत 10 स्थान नीचे खिसक कर दुनिया के देशों में 51वें स्थान पर आ गया. भाजपा की विघटनकारी राजनीति का प्रभाव देश पर स्पष्ट देखा जा सकता है.

इसके साथ ही, यह भी सही है कि पिछले कुछ समय से पूरा देश जिस तरह से सरकार के नागरिकता सम्बन्धी कानून में संशोधन करने के निर्णय के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है उससे प्रजातंत्र को मज़बूती मिली है. दिल्ली के शाहीन बाग में चल रहा विरोध प्रदर्शन इसका प्रतीक है. यह प्रदर्शन 15 दिसंबर 2019 से लगातार जारी है. इस बीच, जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के साथ पुलिस ने बर्बर व्यवहार किया और दिल्ली के जामिया नगर और आसपास के इलाकों में जनता की आवाज़ को दबाने के प्रयास हुए.

यह दिलचस्प है कि शाहीन बाग में चल रहे विरोध प्रदर्शन की शुरुआत मुस्लिम महिलाएं ने की. इनमें बुर्कानशीं महिलाओं के साथ-साथ ऐसी मुस्लिम महिलाएं भी शामिल थीं ‘जो मुस्लिम महिलाओं जैसी नहीं दिखतीं’. धीरे-धीरे उनके साथ सभी समुदायों के विद्यार्थी और युवा भी जुड़ते चले गए. यह आन्दोलन मुसलमानों द्वारा पूर्व में किये गए आंदोलनों से कई अर्थों में अलग है. शाहबानो मामले, महिलाओं को हाजी अली दरगाह में प्रवेश देने और तीन तलाक को गैरक़ानूनी करार दिए जाने के विरोध में जो आन्दोलन हुए थे उनके पीछे मौलाना थे और प्रदर्शनों में दाढ़ी-टोपी वालों की भरमार रहती थी. उन आंदोलनों में मूल मुद्दा शरीअत और इस्लाम की रक्षा का था और उनमें केवल मुसलमान भाग लेते थे.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फ़रमाया था कि विरोध करने वालों को ‘उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है’. मोदीजी को यह देख कर धक्का लगा होगा की नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) और एनपीआर के खिलाफ जो प्रदर्शन हो रहे हैं, उनमें ऐसे लोगों की बहुतायत है जो ‘उनके कपड़ों से नहीं पहचाने जा सकते’.

ये विरोध प्रदर्शन इस्लाम या किसी अन्य धर्म की रक्षा के लिए नहीं हो रहे हैं. ये भारत के संविधान की रक्षा के लिए हो रहे हैं. इनमें जो नारे लगाये जा रहे हैं, वे केवल और केवल प्रजातंत्र और संविधान की रक्षा से सम्बंधित हैं. विरोध प्रदर्शनकारी नारा ए तकबीर अल्लाहु अकबर का नारा बुलंद नहीं कर रहे हैं. वे संविधान की उद्देश्यिका की बात कर रहे हैं. वे फैज़ अहमद फैज़ की कविता ‘हम देखेंगे’ को दोहरा रहे हैं. फैज़ ने यह कविता जनरल जिया-उल-हक के पाकिस्तान में प्रजातंत्र का गला घोंटने के प्रयासों की खिलाफत में लिखी थी. प्रदर्शनकारी वरुण ग्रोवर की कविता ‘तानाशाह आकर जायेंगें…हम कागज़ नहीं दिखाएंगे’ की पंक्तिया गा रहे हैं. यह कविता, सीएए-एनआरसी और वर्तमान सरकार के तानाशाहीपूर्ण रवैये के विरुद्ध सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाने की बात करती है.

भाजपा देश को बार-बार बता रही थी कि मुस्लिम महिलाओं की सबसे बड़ी समस्या तीन तलाक है. परन्तु मुस्लिम महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि मुस्लिम समुदाय के अस्तित्व को आसन्न खतरा उनकी सबसे बड़ी समस्या है. अन्य धार्मिक समुदायों के कमज़ोर तबके, गरीब और बेघर लोग भी यह समझ रहे हैं कि आज अगर दस्तावेजों के अभाव के नाम पर मुसलमानों की नागरिकता पर खतरा मंडरा रहा है तो कल उनकी बारी होगी.

यद्यपि यह आन्दोलन सीएए-एनआरसी पर केन्द्रित है परन्तु यह मोदी सरकार की नीतियों और उसके खोखले वायदों के खिलाफ जनता की आवाज़ भी है. विदेशों में जमा काला धन वापस लाने और युवाओं को रोज़गार उपलब्ध करने के अपने वायदे पूरे करने में सरकार असफल रही है. नोटबंदी ने देश की अर्थव्यवस्था को तार-तार कर दिया है, ज़रूरी चीज़ों की कीमतें आसमान छू रहीं हैं और बेरोजगारों की फौज बड़ी होती जा रही है. इस सबसे बेपरवाह सरकार देश को बांटने में लगी हुई है. ये सभी मुद्दे आमजनों को आक्रोशित कर रहे हैं. यह आन्दोलन बिना किसी प्रयास के फैलता जा रहा है. शाहीन बाग अब केवल एक स्थान नहीं रह गया है. वह श्रमिकों, किसानों और आम जनता की कमर तोड़ने वाली सरकार की नीतियों और वातावरण में नफरत का ज़हर घोलने के उसके प्रयासों के खिलाफ जनाक्रोश का प्रतीक बन गया है.

जहाँ राममंदिर, गोमांस, लव जिहाद और घर वापसी जैसे मुद्दे देश को बाँटने वाले हैं वहीं शाहीन बाग देश को एक कर रहा है. लोग जन गण मन गा रहे हैं, तिरंगा लहरा रहे हैं और महात्मा गाँधी, भगतसिंह, आंबेडकर और मौलाना आजाद की चित्र अपने हाथों में लेकर सड़कों पर निकल पड़े हैं. यह हमारे प्रजातंत्र के लिए गौरव का क्षण है. यह साफ़ है कि आम लोग किसी भी हालत में उस विरासात और उन अधिकारों की रक्षा करना चाहते हैं जो स्वाधीनता आन्दोलन और संविधान ने उन्हें दिए हैं.

यह बताना गैर-ज़रूरी है की बांटने वाली ताकतें और फिरकापरस्त तबका इस आन्दोलन के बारे में तरह-तरह के झूठ फैला रहे हैं. परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विरोध और असहमति प्रजातंत्र की आत्मा है. इस तरह के स्वस्फूर्त आन्दोलन जनता के सच्ची आवाज़ होते हैं. उनका स्वागत किया जाना चाहिए. हमारे प्यारे और न्यारे भारत की रक्षा ऐसे ही आंदोलनों से होगी. और वही हमारे संविधान और हमारे प्रजातान्त्रिक मूल्यों के दुश्मनों से हमें बचायेंगे.  (अंग्रेजी से हिन्दी रुपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित है

-एल एस हरदेनिया

28 जनवरी 2020

शाहीन बाग कर रहा है प्रजातंत्र को मज़बूत, भारत को एक

-राम पुनियानी

इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारी दुनिया में प्रजातंत्र के कदम आगे, और आगे बढ़ते चले जा रहे हैं. विभिन्न देशों में जहाँ ऐसे कारक और शक्तियां सक्रिय हैं जो प्रजातंत्र को मजबूती दे रहे हैं वहीं कुछ ताकतें उसे कमज़ोर करने की साजिशें भी रच रहीं हैं. परन्तु कुल मिलाकर दुनिया सैद्धांतिक प्रजातंत्र से असली प्रजातंत्र की ओर बढ़ रही है. असली प्रजातंत्र में समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व केवल संविधान और कानून की किताबों तक सीमित नहीं रहते. वहां सभी नागरिकों को वास्तविक स्वतंत्रता और समानता हासिल होती है और लोगों के बीच सद्भाव और भाईचारा होता है. भारत के प्रजातंत्रीकरण की शुरुआत आधुनिक शिक्षा और संचार व यातायात के साधनों के विकास के साथ हुई. महात्मा गाँधी ने सन 1920 में असहयोग आन्दोलन प्रारंभ किया जिसमें आम लोगों ने भागीदारी की. भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन आगे चल कर दुनिया का सबसे बड़ा जनांदोलन बना.

भारत के संविधान का मूल चरित्र प्रजातान्त्रिक है और वह प्रजातान्त्रिक मूल्यों से ओतप्रोत है. उसकी शुरुआत ही इन शब्दों से होती है, “हम भारत के लोग”. हमारे संविधान और देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु की नीतियों ने देश में प्रजातंत्र की जड़ों को मजबूती दी. सन 1975 में देश में आपातकाल लागू कर दिया गया. आपातकाल के दौरान जनता के प्रजातान्त्रिक अधिकारों का हनन हुआ. दो साल बाद आपातकाल हटा लिया गया और प्रजातांत्रिक अधिकार बहाल हो गए.

सन 1990 के दशक में राममंदिर आन्दोलन की शुरुआत हुई और यहीं से देश के प्रजातान्त्रिक चरित्र पर हमले भी शुरू हो गए. सन 2014 में केंद्र में भाजपा के शासन में आने के साथ, प्रजातान्त्रिक मूल्यों के क्षरण की प्रक्रिया में तेजी आई. नागरिक स्वतंत्रताओं, बहुवाद और सहभागिता पर आधारित राजनैतिक संस्कृति का ह्रास होने लगा. सन 2019 में प्रजातंत्र के सूचकांक में भारत 10 स्थान नीचे खिसक कर दुनिया के देशों में 51वें स्थान पर आ गया. भाजपा की विघटनकारी राजनीति का प्रभाव देश पर स्पष्ट देखा जा सकता है.

इसके साथ ही, यह भी सही है कि पिछले कुछ समय से पूरा देश जिस तरह से सरकार के नागरिकता सम्बन्धी कानून में संशोधन करने के निर्णय के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है उससे प्रजातंत्र को मज़बूती मिली है. दिल्ली के शाहीन बाग में चल रहा विरोध प्रदर्शन इसका प्रतीक है. यह प्रदर्शन 15 दिसंबर 2019 से लगातार जारी है. इस बीच, जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के साथ पुलिस ने बर्बर व्यवहार किया और दिल्ली के जामिया नगर और आसपास के इलाकों में जनता की आवाज़ को दबाने के प्रयास हुए.

यह दिलचस्प है कि शाहीन बाग में चल रहे विरोध प्रदर्शन की शुरुआत मुस्लिम महिलाएं ने की. इनमें बुर्कानशीं महिलाओं के साथ-साथ ऐसी मुस्लिम महिलाएं भी शामिल थीं ‘जो मुस्लिम महिलाओं जैसी नहीं दिखतीं’. धीरे-धीरे उनके साथ सभी समुदायों के विद्यार्थी और युवा भी जुड़ते चले गए. यह आन्दोलन मुसलमानों द्वारा पूर्व में किये गए आंदोलनों से कई अर्थों में अलग है. शाहबानो मामले, महिलाओं को हाजी अली दरगाह में प्रवेश देने और तीन तलाक को गैरक़ानूनी करार दिए जाने के विरोध में जो आन्दोलन हुए थे उनके पीछे मौलाना थे और प्रदर्शनों में दाढ़ी-टोपी वालों की भरमार रहती थी. उन आंदोलनों में मूल मुद्दा शरीअत और इस्लाम की रक्षा का था और उनमें केवल मुसलमान भाग लेते थे.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फ़रमाया था कि विरोध करने वालों को ‘उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है’. मोदीजी को यह देख कर धक्का लगा होगा की नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) और एनपीआर के खिलाफ जो प्रदर्शन हो रहे हैं, उनमें ऐसे लोगों की बहुतायत है जो ‘उनके कपड़ों से नहीं पहचाने जा सकते’.

ये विरोध प्रदर्शन इस्लाम या किसी अन्य धर्म की रक्षा के लिए नहीं हो रहे हैं. ये भारत के संविधान की रक्षा के लिए हो रहे हैं. इनमें जो नारे लगाये जा रहे हैं, वे केवल और केवल प्रजातंत्र और संविधान की रक्षा से सम्बंधित हैं. विरोध प्रदर्शनकारी नारा ए तकबीर अल्लाहु अकबर का नारा बुलंद नहीं कर रहे हैं. वे संविधान की उद्देश्यिका की बात कर रहे हैं. वे फैज़ अहमद फैज़ की कविता ‘हम देखेंगे’ को दोहरा रहे हैं. फैज़ ने यह कविता जनरल जिया-उल-हक के पाकिस्तान में प्रजातंत्र का गला घोंटने के प्रयासों की खिलाफत में लिखी थी. प्रदर्शनकारी वरुण ग्रोवर की कविता ‘तानाशाह आकर जायेंगें…हम कागज़ नहीं दिखाएंगे’ की पंक्तिया गा रहे हैं. यह कविता, सीएए-एनआरसी और वर्तमान सरकार के तानाशाहीपूर्ण रवैये के विरुद्ध सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाने की बात करती है.

भाजपा देश को बार-बार बता रही थी कि मुस्लिम महिलाओं की सबसे बड़ी समस्या तीन तलाक है. परन्तु मुस्लिम महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि मुस्लिम समुदाय के अस्तित्व को आसन्न खतरा उनकी सबसे बड़ी समस्या है. अन्य धार्मिक समुदायों के कमज़ोर तबके, गरीब और बेघर लोग भी यह समझ रहे हैं कि आज अगर दस्तावेजों के अभाव के नाम पर मुसलमानों की नागरिकता पर खतरा मंडरा रहा है तो कल उनकी बारी होगी.

यद्यपि यह आन्दोलन सीएए-एनआरसी पर केन्द्रित है परन्तु यह मोदी सरकार की नीतियों और उसके खोखले वायदों के खिलाफ जनता की आवाज़ भी है. विदेशों में जमा काला धन वापस लाने और युवाओं को रोज़गार उपलब्ध करने के अपने वायदे पूरे करने में सरकार असफल रही है. नोटबंदी ने देश की अर्थव्यवस्था को तार-तार कर दिया है, ज़रूरी चीज़ों की कीमतें आसमान छू रहीं हैं और बेरोजगारों की फौज बड़ी होती जा रही है. इस सबसे बेपरवाह सरकार देश को बांटने में लगी हुई है. ये सभी मुद्दे आमजनों को आक्रोशित कर रहे हैं. यह आन्दोलन बिना किसी प्रयास के फैलता जा रहा है. शाहीन बाग अब केवल एक स्थान नहीं रह गया है. वह श्रमिकों, किसानों और आम जनता की कमर तोड़ने वाली सरकार की नीतियों और वातावरण में नफरत का ज़हर घोलने के उसके प्रयासों के खिलाफ जनाक्रोश का प्रतीक बन गया है.

जहाँ राममंदिर, गोमांस, लव जिहाद और घर वापसी जैसे मुद्दे देश को बाँटने वाले हैं वहीं शाहीन बाग देश को एक कर रहा है. लोग जन गण मन गा रहे हैं, तिरंगा लहरा रहे हैं और महात्मा गाँधी, भगतसिंह, आंबेडकर और मौलाना आजाद की चित्र अपने हाथों में लेकर सड़कों पर निकल पड़े हैं. यह हमारे प्रजातंत्र के लिए गौरव का क्षण है. यह साफ़ है कि आम लोग किसी भी हालत में उस विरासात और उन अधिकारों की रक्षा करना चाहते हैं जो स्वाधीनता आन्दोलन और संविधान ने उन्हें दिए हैं.

यह बताना गैर-ज़रूरी है की बांटने वाली ताकतें और फिरकापरस्त तबका इस आन्दोलन के बारे में तरह-तरह के झूठ फैला रहे हैं. परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विरोध और असहमति प्रजातंत्र की आत्मा है. इस तरह के स्वस्फूर्त आन्दोलन जनता के सच्ची आवाज़ होते हैं. उनका स्वागत किया जाना चाहिए. हमारे प्यारे और न्यारे भारत की रक्षा ऐसे ही आंदोलनों से होगी. और वही हमारे संविधान और हमारे प्रजातान्त्रिक मूल्यों के दुश्मनों से हमें बचायेंगे.  (अंग्रेजी से हिन्दी रुपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित है