हज कमिटी ऑफ़ इंडिया को एक रूपये का भी फंड नहीं देती है सरकार

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ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि मुंबई का हज हाऊस या फिर अन्य राज्यों का हज हाऊस किसकी मिल्कियत है?

www.siyasat.news desk 

कहने को हज कमिटी ऑफ़ इंडिया एक सांविधिक संस्था है, लेकिन बावजूद इसके इसे दूसरी सांविधिक संस्थाओं की तरह सरकार की ओर से एक पैसे का भी फंड नहीं मिलता है. इसका सारा खर्च भारत के उन मुसलमानों से निकाला जाता है, जो हज के लिए हर साल मक्का जाते हैं.

हज कमिटी ऑफ़ इंडिया के सीईओ डॉ. मक़सूद अहमद खान का कहना है कि हज कमिटी को कोई पांच पैसा भी नहीं देता है. दफ़्तर में काम करने वाले हर अधिकारी व स्टाफ़ की तन्ख्वाह हज कमिटी ऑफ़ इंडिया ही देती है. यहां तक कि मेरी भी तन्ख्वाह हाजियों के दिए पैसों से ही मिलती है.

ये पूछने पर क्या केन्द्र सरकार की ओर से आपको पैसे नहीं मिलते हैं, तो इस पर उनका स्पष्ट तौर पर कहना है कि एक पैसा नहीं मिलता, बल्कि मंत्री व सरकारी अधिकारियों के तमाम मीटिंग्स के खर्चे को भी हज कमिटी ऑफ़ इंडिया ही उठाती है.

तो फिर सरकार क्या करती है? इस पर वो कहते हैं —कुछ नहीं करती है, सिर्फ़ हमारे कामों में टांग अड़ाती है और हमें रेगुलेट करती है.

इस सिलसिले में हज कमिटी ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन चौधरी महबूब अली क़ैसर का भी कहना है कि सीईओ डॉ. मक़सूद अहमद खान की बात सही है. भारत सरकार से हज कमिटी ऑफ़ इंडिया को कोई एड या ग्रांट नहीं मिलता है. ये हाजियों के पैसों से ही चलता है.

वो आगे ये भी कहते हैं कि, सरकार कोई ग्रांट नहीं देती है, लेकिन हर चीज़ में सरकार का दख़ल है और ये दख़ल लाज़िमी भी है, क्योंकि सऊदी सरकार से वीज़ा या अन्य मसलों से संबंधित बात भारत सरकार ही कर सकती है.

हालांकि उनका ये भी कहना है कि, लेकिन कम से कम हाजियों की जो परेशानियां हैं, उस तरफ़ सरकार या उसके मंत्री को ध्यान ज़रूर देना चाहिए. इस तरफ़ अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के ख़ास ध्यान देने की ज़रूरत है.

वहीं हज कमिटी ऑफ़ इंडिया के एक अधिकारी नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताते हैं कि, हज कमिटी ऑफ़ इंडिया पूरी तरह से हज के दौरान मुसमलानों के ज़रिए हासिल रक़म से चलती है.

वो बताते हैं कि मुंबई में कमिटी अपना हज हाऊस का हॉल किराये पर लगाती है. शादी के लिए इस हॉल का किराया 50-60 हज़ार रूपये लिया जाता है, तो वहीं अन्य धार्मिक व सामाजिक प्रोग्रामों के लिए इस रक़म में डिस्काउंट किया जाता है. यही नहीं, बैंक में रखी रक़म से हर साल करोड़ों की कमाई होती है.

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि मुंबई का हज हाऊस या फिर अन्य राज्यों का हज हाऊस किसकी मिल्कियत है?

तो बताते चलें कि हज एक्ट और हज रूल —2002 में हज हाऊस की इमारत के संबंध में कोई ज़िक्र नहीं, कोई इशारा भी नहीं, लेकिन सूचना के अधिकार से मिली सूचना के मुताबिक़ मुंबई के हज हाऊस को हज कमिटी ऑफ़ इंडिया की मिल्कियत क़रार दिया गया है. अब चूंकि हज कमिटी ऑफ़ इंडिया एक सरकारी संस्था है, इस तरह से देश के तमाम हज हाऊसों की इमारत सरकारी हो जाती है. जबकि ये इमारतें सरकारी फंड से नहीं, बल्कि मुसलमानों की अपनी रक़म से वजूद में आई है.

हालांकि हज कमिटी ऑफ़ इंडिया के एक अधिकारी बताते हैं कि ज़्यादातर राज्यों में हज हाऊस, हज कमिटी ऑफ़ इंडिया के फंड से ही बने हैं. कुछ राज्यों में वहां की सरकारों ने थोड़ी-बहुत मदद ज़रूर की है.

यहां बता दें कि विवादों में चल रहे ग़ाज़ियाबाद के हज हाऊस की बिल्डिंग के निर्माण में हज कमिटी ऑफ़ इंडिया ने अच्छी-ख़ासी रक़म की मदद की थी.

चौंकाने वाली बात ये है कि हज कमिटी ऑफ़ इंडिया के मुंबई हज भवन के निर्माण में भी कोई रोल नहीं रहा है.

आरटीआई से मिले अहम दस्तावेज़ों के मुताबिक़, मुंबई हज हाऊस बिल्डिंग के निर्माण का काम 7 मार्च, 1983 से शुरू हुआ और इसके निर्माण में भारत सरकार से किसी भी तरह की कोई भी मदद या क़र्ज़ नहीं लिया गया है. इसके निर्माण पर होने वाले तमाम खर्च को हज कमिटी ने ही वहन किया. इस हज हाऊस बिल्डिंग में 102 कमरे और एक एसी हॉल है. हज कमिटी के इस हॉल का किराया न्यूनतम 25 हज़ार रूपये प्रति प्रोग्राम है. शादी में ये रक़म 50 हज़ार रूपये से अधिक होती है.

हज के मामलों पर काम करने वाले मुंबई के सामाजिक कार्यकर्ता अत्तार अज़ीमी का कहना है कि, हज हाऊस से जो आमदनी होती है और वो तमाम जायदाद व बैंक बैलेंस हाजियों की मिल्कियत है, जिन्होंने अपनी हलाल कमाई के चंदे से ये इमारत खड़ी की है. इनके बाद इनकी नस्लें इस हज हाऊस और अन्य जायदाद के मालिक होंगे. लेकिन सवाल ये पैदा होता है कि अगर मालिक को ही अपनी जायज़ प्रॉपर्टी से किसी भी क़िस्म का फ़ायदा न मिले तो जायदाद किस काम की?

वो आगे कहते हैं कि, ज़रूरत इस बात की है कि तमाम मसलक व फ़िरक़े के मुसमलान एक प्लेटफॉर्म पर जमा होकर अपने तमाम दानिश्वरों को जमा करें और कोई कमिटी या ट्रस्ट बनाकर सरकार से अपील करें कि हमने आपका बेहतरीन साथ दिया है और अब वादा-ए-वफ़ाई का वक़्त आ चुका है. जो हमारी चीज़ है वो बग़ैर किसी सियासत के हमें सौंप दें. इस तरह से मुसमलान हज हाऊसों की शानदार इमारतों को अपने क़ब्ज़े में लेकर मुसलमानों की तरक़्क़ी व कल्याण की सोच सकते हैं.

यहां बताते चलें कि हज कमिटी ऑफ़ इंडिया, जो पहले विदेश मंत्रालय के अंतर्गत थी, लेकिन अब अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत है.     courtesy  BeyondHeadlines