Big story: ममता दीदी नंदीग्राम में जायंट किलर बन सकेगी? सत्ता की चाबी मुस्लिम वोटरों के हाथ में

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असल में ISF के चुनावी मैदान में उतरने से टीएमसी के मुस्लिम वोट बैंक में विभाजन होने की आशंका दिख रही है। यूं तो पिछले एक दशक में हुए चुनावों में मुसलमानों ने ममता बनर्जी का ही साथ दिया है, पर ब्रिगेड परेड ग्राउंड में हुई सभा के बाद खेल बदला हुआ दिख रहा है !

By Abdulhafiz Lakhani  kolkata

पश्चिम बंगाल चुनाव के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नंदीग्राम से अपना नामांकन दाखिल कर दिया है। ममता बनर्जी ने एसडीओ दफ्तर में पूरी प्रक्रिया के साथ अपना पर्चा भरा। नामांकन दाखिल करने के बाद ममता ने कहा कि नंदीग्राम मेरे लिए नया नहीं है। उन्होंने कहा कि मैं अपना नाम भूल सकती हूं लेकिन नंदीग्राम का नहीं।
उन्होंने आगे कहा कि नंदीग्राम के मां, भाई, बहनें, मुझे याद रखें और ये याद रखें कि बंगाल में टीएमसी की जीत होगी। ममता बनर्जी ने आगे कहा कि उन्हें यहां की जनता का आशीर्वाद चाहिए। ममता बनर्जी ने कहा कि मैं सारे समुदाय से एक समान प्यार करती हूं.

पश्चिम बंगाल में सत्ता की चाबी मुस्लिम वोटरों के हाथ में है, जो पिछले एक दशक से ममता के साथ रहे हैं। इस बार उन्हें अपने साथ लाने के लिए लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस ने ISF जैसे कट्टरपंथी दल के साथ गठजोड़ बनाया है, जिसका कांग्रेस के अंदर एक वर्ग विरोध कर रहा है। दूसरी ओर, मुस्लिम वोटों के भरोसे ही ओवैसी की AIMIM भी चुनाव में उतर रही हैं।

पश्चिम बंगाल में कुल 294 विधानसभा क्षेत्र हैं, जिनमें से 46 में मुस्लिमों की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक है। 16 सीटें ऐसी हैं, जहां मुसलमानों की आबादी 40 फीसदी से अधिक, 33 सीटों पर 30 फीसदी से अधिक और 50 सीटों पर 25 फीसदी से अधिक हैं। यानी करीब 100 से अधिक निर्वाचन क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मुस्लिम मतदाता किसी की हार-जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

दक्षिण 24 परगना, उत्तर 24 परगना, नदिया और बीरभूम जिलों में मुस्लिम वोटों को ध्यान में रखकर ही उम्मीदवार तय किए जाते रहे हैं। वहीं 2011 की जनगणना बताती है कि राज्य के तीन जिलों मालदा (51 फीसदी), मुर्शिदाबाद (67 फीसदी), उत्तर दिनाजपुर (50 फीसदी) में मुस्लिम आबादी हिंदुओं से बहुत अधिक है। इन तीन जिलों पर टीएमसी, कांग्रेस, ISF मोर्चा और AIMIM की नजर हैं। इंडियन सेक्युलर फ्रंट (ISF) के संस्थापक 34 वर्षीय अब्बास सिद्दीकी एक मुस्लिम धार्मिक स्थल फुरफुरा शरीफ के पीरजादा हैं, जबकि उनके चाचा त्वहा सिद्दीकी टीएमसी समर्थक।

2019 लोकसभा चुनावों में टीएमसी को बीजेपी से तीन प्रतिशत अधिक मत मिले थे। टीएमसी ने तब 65 फीसदी मुस्लिम वोट हासिल किए थे। 2019 लोकसभा चुनाव में ममता की पार्टी को 22 और बीजेपी को 18 सीटें मिली थीं। दो सीटें कांग्रेस के खाते में गई थीं। तब मुसलमान मतदाताओं ने टीएमसी का साथ दिया। उन्हें लगा कि ममता ही नरेंद्र मोदी को चुनौती दे सकती हैं। यानी खेल मुस्लिम वोटरों ने ही बदला।

अल्पसंख्यकों का यही वोट 2006 तक लेफ्ट फ्रंट को मिलता था, इसलिए वे आराम से सत्ता में बने हुए थे। 2006 विधानसभा चुनाव में लेफ्ट को 56 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले और उसने 294 में से 233 सीटों पर कब्जा किया। 2011 और 2016 के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम टीएमसी के साथ गए और पार्टी चुनाव जीत गई। वैसे 2006 में आई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से पता चला कि मुसलमानों के रहने के लिहाज से पश्चिम बंगाल सबसे खराब राज्यों में शामिल है।

टीएमसी ने सत्ता में आने के बाद इस स्थिति को बदलने के लिए कई कदम उठाए। ममता बनर्जी ने इमामों को भत्ता देने, मदरसों में पढ़ने वाली लड़कियों को मुफ्त साइकिल, मुस्लिम छात्रों को स्कॉलरशिप, मुस्लिम ओबीसी को आरक्षण देने जैसी पहल की। उर्दू को दूसरी आधिकारिक भाषा बनाया। विधानसभा चुनावों में मुस्लिमों को दिए गए टिकटों की संख्या भी 38 से बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दी। तो क्या इस बार के चुनाव में भी मुस्लिम वोटर टीएमसी का ही साथ देंगे?

कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में पिछले रविवार को लेफ्ट फ्रंट, कांग्रेस और ISF की सभा में उमड़ी भीड़ को देखने के बाद यह सवाल उलझ गया है। जो राजनीतिक विश्लेषक कल तक चुनाव में टीएमसी और बीजेपी के बीच कांटे की टक्कर का दावा कर रहे थे, अब वे तीसरे मोर्चे को भी तवज्जो दे रहे हैं। ब्रिगेड मैदान में 5 लाख से अधिक लोग आए। भीड़ देखकर सीपीएम और कांग्रेस के शीर्ष नेता तक हैरान थे। यह हाल तब था, जब दोनों पार्टियों की ओर से कोई स्टार नेता सभा में शामिल नहीं हुआ।

ब्रिगेड की भीड़ में एक बड़ा तबका अल्पसंख्यक समुदाय विशेष रूप से मुसलमानों का था। इसका श्रेय ISF के प्रमुख अब्बास सिद्दीकी ले रहे हैं। उन्होंने कहा कि अगर लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस से समझौता एक हफ्ता पहले हुआ होता तो वे इससे कहीं ज्यादा भीड़ ले आते। लेकिन इस अलायंस में अब्बास सिद्दीकी के शामिल होने को लेकर सवाल भी उठ रहे हैं। काग्रेस के प्रवक्ता आनंद शर्मा ने ट्वीट किया, ‘ऐसे लोगों के साथ समझौता कांग्रेस के सिद्धांतों के विपरीत है। इस बारे में काग्रेस कार्य समिति में चर्चा होनी चाहिए।’

दूसरों का भी कहना है कि जिन कारणों से बीजेपी को कट्टरवादी बताया जाता है, उन्हीं वजहों से क्यों न अब्बास सिद्दीकी से भी दूरी बनाई जाए। अगर हिंदुओं की बात कर बीजेपी साम्प्रदायिक हो सकती है तो मुसलमानों की बात करने वाला अब्बास सिद्दीकी सेक्युलर कैसे हो सकता है। मुस्लिम ध्रुवीकरण की कोशिश में सिर्फ सिद्दीकी ही नहीं बल्कि AIMIM भी है। ओवैसी ने तो अब्बास सिद्दीकी के साथ गठबंधन की भी कोशिश की थी।

असल में ISF के चुनावी मैदान में उतरने से टीएमसी के मुस्लिम वोट बैंक में विभाजन होने की आशंका दिख रही है। यूं तो पिछले एक दशक में हुए चुनावों में मुसलमानों ने ममता बनर्जी का ही साथ दिया है, पर ब्रिगेड परेड ग्राउंड में हुई सभा के बाद खेल बदला हुआ दिख रहा है। लेफ्ट, कांग्रेस और ISF के अलायंस में एक पेच यह है कि अभी तक कांग्रेस और सिद्दीकी की पार्टी के बीच सीटों के बंटवारे पर सहमति नहीं बनी है। बीजेपी नेताओं में भी टिकट की होड़ मची है। एक-एक सीट पर पार्टी के दर्जनों प्रत्याशी दावेदार हैं। पार्टी के पुराने और नए नेताओं में भी मतभेद हैं। सिर्फ टीएमसी है, जिसके उम्मीदवार तय हैं और सिर्फ घोषणा होनी बाकी है। ममता की पार्टी को नहीं लगता कि मुसलमान वोटर उसे छोड़कर जाएंगे। वैसे, टीएमसी और बीजेपी की सभाओं में ‘खेला होबे’ का नारा भी दिया जा रहा है। तो इंतजार कीजिए इस खेल का।

जो सबसे बड़ी दलील दी जा रही है वह यह है कि आईएसएफ के साथ गठबंधन के बाद से कांग्रेस की छवि को काफी नुकसान हो सकता है। इसके पीछे का यह तर्क दिया जा रहा है कि अब तक कांग्रेस धर्म आधारित राजनीति से खुद को दूर रखती थी।
बंगाल में चुनावी सरगर्मी के बीच कांग्रेस के लिए चुनौतियां कम होने का नाम नहीं ले रही है। फुर्फूरा शरीफ के अब्बास सिद्दीकी की पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट के साथ गठबंधन के बाद पार्टी पर लगातार सवाल उठ रहे है। भाजपा तो सवाल उठा ही रही है। लेकिन कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि पार्टी के अंदर भी पर सवाल उठ रहे है। आनंद शर्मा जैसे नेताओं ने भी लगातार कांग्रेस के इस फैसले पर सवाल उठाया है। आनंद शर्मा ने तो यह तक कह दिया कि यह फैसला पार्टी की गांधीवादी और नेहरू वादी धर्मनिरपेक्षता के तरीके के खिलाफ है। उन्होंने कहा कि सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस चयनात्मक नहीं हो सकती। कांग्रेस का गठबंधन पश्चिम बंगाल में वाम दलों और आईएसएफ के साथ है। पार्टी किसी भी कीमत पर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती। उसने आईएसएफ की मौजूदगी को स्वीकार किया है। अगर एक गठबंधन में तीन पार्टियां साथ है तो सभी के बीच एक रजामंदी भी हुई होगी।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर पश्चिम बंगाल में आईएसएफ का साथ कांग्रेस को क्यों लेना पड़ा? सबसे बड़ा तर्क दिया जा रहा है कि पश्चिम बंगाल में 30 से 35 फ़ीसदी के बीच मुस्लिम आबादी है। करीब 70 से 100 सीटों पर मुसलमानों का वोट बहुत ज्यादा निर्णायक होता है। एक वक्त ऐसा था जब मुसलमानों का वोट वामदल या फिर कांग्रेस को जाते थे। लेकिन ममता बनर्जी के उदय के साथ यह समीकरण बदल गया। बंगाल के मुस्लिम मतदाता टीएमसी की ओर शिफ्ट हो गए। अब्बास सिद्दकी भी ममता बनर्जी के खुले समर्थक हुआ करते थे। लेकिन इस चुनाव से पहले परिस्थितियां बदली है और देखते ही देखते अब्बास सिद्दीकी ने नए पार्टी का ऐलान कर दिया। अब माना जा रहा है कि अब्बास सिद्दीकी की एंट्री से कांग्रेस और वाम दल मुस्लिम मतदाताओं में सेंधमारी की कोशिश कर सकते है।
जो सबसे बड़ी दलील दी जा रही है वह यह है कि आईएसएफ के साथ गठबंधन के बाद से कांग्रेस की छवि को काफी नुकसान हो सकता है। इसके पीछे का यह तर्क दिया जा रहा है कि अब तक कांग्रेस धर्म आधारित राजनीति से खुद को दूर रखती थी। चाहे कोई दल हिंदू धर्म के नुमाइंदी कर रही हो या मुसलमानों की। कांग्रेस सब से दूरी बनाकर मध्य की राजनीति करना ज्यादा पसंद करती थी। आनंद शर्मा ने जो तर्क दिया उसकी भी बुनियाद यही है। लेकिन अब यह कहा जा रहा है कि आईएसएफ के साथ लेने से अगर कांग्रेस को कोई फायदा नहीं है तो उसका नुकसान भी नहीं होने जा रहा है। कांग्रेस अपनी छवि से निकल रही है। क्योंकि उसके नेता अब प्रचार में मंदिर मंदिर घूम रहे हैं और जनेऊ धारी बन रहे हैं। इसके अलावा पार्टी हिंदुत्व की राजनीति करने वाली शिवसेना के साथ पहले से ही सरकार में है। ऐसे में आईएसएफ के साथ गठबंधन में क्या हर्ज है? हालांकि, 2016 में असम चुनाव के दौरान एआईयूडीएफ के साथ पार्टी ने गठबंधन से इनकार कर दिया था क्योंकि उस वक्त पार्टी को लगता था कि यह उसके छवि के अनुसार नहीं होगा। बावजूद इसके पार्टी हार गई थी।
फिलहाल यह देखना होगा कि आई आईएसएफ के साथ कांग्रेस और वाम दलों के गठबंधन से कितना फायदा होता है। लेकिन सीधा-सीधा देखें तो इस गठबंधन से सबसे ज्यादा नुकसान टीएमसी को होने वाला है। टीएमसी को होने वाला नुकसान भाजपा के लिए फायदेमंद है। इससे बंगाल चुनाव में नए राजनीतिक समीकरण दिख सकते है। बहुत सारे उलटफेर की भी संकेत मिल रहे हैं। हालांकि यह देखना होगा कि आईएसएफ के साथ गठबंधन के बाद मुस्लिम मतदाता क्या टीएमसी की तरह ही रहते हैं या फिर इस नए गठबंधन का हिस्सा बनते हैं? वर्तमान में देखे तो बंगाल चुनाव अपने दिलचस्प मोड़ पर है। रोज नए नए समीकरण बन रहे है और वोटरों को साधने के नए-नए तरीके आजमाए जा रहे है।
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 Abdulhafiz Lakhani