असल में ISF के चुनावी मैदान में उतरने से टीएमसी के मुस्लिम वोट बैंक में विभाजन होने की आशंका दिख रही है। यूं तो पिछले एक दशक में हुए चुनावों में मुसलमानों ने ममता बनर्जी का ही साथ दिया है, पर ब्रिगेड परेड ग्राउंड में हुई सभा के बाद खेल बदला हुआ दिख रहा है !
By Abdulhafiz Lakhani kolkata
पश्चिम बंगाल में सत्ता की चाबी मुस्लिम वोटरों के हाथ में है, जो पिछले एक दशक से ममता के साथ रहे हैं। इस बार उन्हें अपने साथ लाने के लिए लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस ने ISF जैसे कट्टरपंथी दल के साथ गठजोड़ बनाया है, जिसका कांग्रेस के अंदर एक वर्ग विरोध कर रहा है। दूसरी ओर, मुस्लिम वोटों के भरोसे ही ओवैसी की AIMIM भी चुनाव में उतर रही हैं।
पश्चिम बंगाल में कुल 294 विधानसभा क्षेत्र हैं, जिनमें से 46 में मुस्लिमों की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक है। 16 सीटें ऐसी हैं, जहां मुसलमानों की आबादी 40 फीसदी से अधिक, 33 सीटों पर 30 फीसदी से अधिक और 50 सीटों पर 25 फीसदी से अधिक हैं। यानी करीब 100 से अधिक निर्वाचन क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मुस्लिम मतदाता किसी की हार-जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
दक्षिण 24 परगना, उत्तर 24 परगना, नदिया और बीरभूम जिलों में मुस्लिम वोटों को ध्यान में रखकर ही उम्मीदवार तय किए जाते रहे हैं। वहीं 2011 की जनगणना बताती है कि राज्य के तीन जिलों मालदा (51 फीसदी), मुर्शिदाबाद (67 फीसदी), उत्तर दिनाजपुर (50 फीसदी) में मुस्लिम आबादी हिंदुओं से बहुत अधिक है। इन तीन जिलों पर टीएमसी, कांग्रेस, ISF मोर्चा और AIMIM की नजर हैं। इंडियन सेक्युलर फ्रंट (ISF) के संस्थापक 34 वर्षीय अब्बास सिद्दीकी एक मुस्लिम धार्मिक स्थल फुरफुरा शरीफ के पीरजादा हैं, जबकि उनके चाचा त्वहा सिद्दीकी टीएमसी समर्थक।
2019 लोकसभा चुनावों में टीएमसी को बीजेपी से तीन प्रतिशत अधिक मत मिले थे। टीएमसी ने तब 65 फीसदी मुस्लिम वोट हासिल किए थे। 2019 लोकसभा चुनाव में ममता की पार्टी को 22 और बीजेपी को 18 सीटें मिली थीं। दो सीटें कांग्रेस के खाते में गई थीं। तब मुसलमान मतदाताओं ने टीएमसी का साथ दिया। उन्हें लगा कि ममता ही नरेंद्र मोदी को चुनौती दे सकती हैं। यानी खेल मुस्लिम वोटरों ने ही बदला।
अल्पसंख्यकों का यही वोट 2006 तक लेफ्ट फ्रंट को मिलता था, इसलिए वे आराम से सत्ता में बने हुए थे। 2006 विधानसभा चुनाव में लेफ्ट को 56 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले और उसने 294 में से 233 सीटों पर कब्जा किया। 2011 और 2016 के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम टीएमसी के साथ गए और पार्टी चुनाव जीत गई। वैसे 2006 में आई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से पता चला कि मुसलमानों के रहने के लिहाज से पश्चिम बंगाल सबसे खराब राज्यों में शामिल है।
टीएमसी ने सत्ता में आने के बाद इस स्थिति को बदलने के लिए कई कदम उठाए। ममता बनर्जी ने इमामों को भत्ता देने, मदरसों में पढ़ने वाली लड़कियों को मुफ्त साइकिल, मुस्लिम छात्रों को स्कॉलरशिप, मुस्लिम ओबीसी को आरक्षण देने जैसी पहल की। उर्दू को दूसरी आधिकारिक भाषा बनाया। विधानसभा चुनावों में मुस्लिमों को दिए गए टिकटों की संख्या भी 38 से बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दी। तो क्या इस बार के चुनाव में भी मुस्लिम वोटर टीएमसी का ही साथ देंगे?
कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में पिछले रविवार को लेफ्ट फ्रंट, कांग्रेस और ISF की सभा में उमड़ी भीड़ को देखने के बाद यह सवाल उलझ गया है। जो राजनीतिक विश्लेषक कल तक चुनाव में टीएमसी और बीजेपी के बीच कांटे की टक्कर का दावा कर रहे थे, अब वे तीसरे मोर्चे को भी तवज्जो दे रहे हैं। ब्रिगेड मैदान में 5 लाख से अधिक लोग आए। भीड़ देखकर सीपीएम और कांग्रेस के शीर्ष नेता तक हैरान थे। यह हाल तब था, जब दोनों पार्टियों की ओर से कोई स्टार नेता सभा में शामिल नहीं हुआ।
ब्रिगेड की भीड़ में एक बड़ा तबका अल्पसंख्यक समुदाय विशेष रूप से मुसलमानों का था। इसका श्रेय ISF के प्रमुख अब्बास सिद्दीकी ले रहे हैं। उन्होंने कहा कि अगर लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस से समझौता एक हफ्ता पहले हुआ होता तो वे इससे कहीं ज्यादा भीड़ ले आते। लेकिन इस अलायंस में अब्बास सिद्दीकी के शामिल होने को लेकर सवाल भी उठ रहे हैं। काग्रेस के प्रवक्ता आनंद शर्मा ने ट्वीट किया, ‘ऐसे लोगों के साथ समझौता कांग्रेस के सिद्धांतों के विपरीत है। इस बारे में काग्रेस कार्य समिति में चर्चा होनी चाहिए।’
दूसरों का भी कहना है कि जिन कारणों से बीजेपी को कट्टरवादी बताया जाता है, उन्हीं वजहों से क्यों न अब्बास सिद्दीकी से भी दूरी बनाई जाए। अगर हिंदुओं की बात कर बीजेपी साम्प्रदायिक हो सकती है तो मुसलमानों की बात करने वाला अब्बास सिद्दीकी सेक्युलर कैसे हो सकता है। मुस्लिम ध्रुवीकरण की कोशिश में सिर्फ सिद्दीकी ही नहीं बल्कि AIMIM भी है। ओवैसी ने तो अब्बास सिद्दीकी के साथ गठबंधन की भी कोशिश की थी।
असल में ISF के चुनावी मैदान में उतरने से टीएमसी के मुस्लिम वोट बैंक में विभाजन होने की आशंका दिख रही है। यूं तो पिछले एक दशक में हुए चुनावों में मुसलमानों ने ममता बनर्जी का ही साथ दिया है, पर ब्रिगेड परेड ग्राउंड में हुई सभा के बाद खेल बदला हुआ दिख रहा है। लेफ्ट, कांग्रेस और ISF के अलायंस में एक पेच यह है कि अभी तक कांग्रेस और सिद्दीकी की पार्टी के बीच सीटों के बंटवारे पर सहमति नहीं बनी है। बीजेपी नेताओं में भी टिकट की होड़ मची है। एक-एक सीट पर पार्टी के दर्जनों प्रत्याशी दावेदार हैं। पार्टी के पुराने और नए नेताओं में भी मतभेद हैं। सिर्फ टीएमसी है, जिसके उम्मीदवार तय हैं और सिर्फ घोषणा होनी बाकी है। ममता की पार्टी को नहीं लगता कि मुसलमान वोटर उसे छोड़कर जाएंगे। वैसे, टीएमसी और बीजेपी की सभाओं में ‘खेला होबे’ का नारा भी दिया जा रहा है। तो इंतजार कीजिए इस खेल का।