siyasat.net news desk
इंडियन नेशनल कांग्रेस (आईएनसी) जिसे सालों से एक परिवार चलाता आ रहा है और अब इसकी कमान संजय गांधी और सोनिया गांधी के बेटे राहुल गांधी संभाल रहे हैं। वो कभी राजनीति में इतनी रूचि नहीं रखते थे, उनका राजनीति का हिस्सा बने रहना उनकी मज़बूरी के तौर पर भी देखा जाता था लेकिन शायद अब ये उनकी मज़बूरी नहीं रही समय के साथ इस क्षेत्र में उनकी रूचि जरुर जाग गई है। साल 2014 के बाद से कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही थी और इस दौर में राहुल गांधी को पार्टी का नेतृत्व संभालने के लिए जिम्मदारी दे दी गयी। इस दौरान उन्हें पप्पू, बाबा, शहजादा जैसे कई नाम मिले और कहा गया वो राजनीति के लिए नहीं बने हैं और आज भी वो इस कहे को नहीं बदल पाए हैं।
ऐसा हम यूं ही नहीं कह रहे बल्कि इसके पीछे कहने की कई वजह हैं। कर्नाटक में पार्टी का जेडीएस के साथ गठबंधन का फैसला हो या मध्य प्रदेश और राजस्थान में सीएम पद को लेकर चल रही तनातनी तीनों ही जगह प्रियंका गांधी को हस्तक्षेप करना पड़ा है। मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ के बीच मुख्यमंत्री पद को लेकर तनातनी थी। राहुल गांधी के आवास पर दोनों को लेकर बातचीत शुरू हुई लेकिन इसके बावजूद मामला नहीं सुलझा। लोकप्रियता के मामले में सिंधिया ने कमलनाथ को पीछे छोड़ दिया था
मध्य प्रदेश में मामला तो सुलझ गया लेकिन राजस्थान में मामला एक बार फिर से उलझ गया। यहां अशोक गहलोत को लेकर सभी तैयारियां पूरी थीं लेकिन सचिन पायलट ने तुरंत राहुल गांधी से मुलाक़ात की और अपनी दावेदारी पेश करते हुए कई मुद्दे सामने रखे। सचिन पायलट की बातों को सुनकर राहुल गांधी एक बार फिर से उलझन में पड़ गये उन्हें समझ नहीं आ रहा था अब किसपर आखिरी मुहर लगाई जाए। सचिन पायलट के समर्थकों ने भी साफ़ कर दिया कि वो सिर्फ सचिन पायलट को ही मुख्यमंत्री बनते हुए देखना चाहते हैं और विरोध भी शुरू कर दिया। इसके बाद गांधी वंशज की मुश्किलें और बढ़ गयीं। वो सचिन को मनाने के प्रयासों में जुट गये लेकिन न पायलट मान रहे थे और न उनके समर्थक। इसके बाद फिर से यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा। यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी के हस्तक्षेप के बाद ही पायलट ने अशोक गहलोत के नाम पर सहमती जताई और अपने कदम पीछे खीच लिए। इन दोनों ही मामलों से साफ़ हो जाता है कि पार्टी के नेता राहुल गांधी के फैसले को कितनी गंभीरता से लेते हैं और उनकी कितनी सुनते हैं। यहां प्रियंका गांधी की भूमिका से एक बार फिर से ये साफ़ हो गया कि वास्तव में राहुल गांधी की तुलना में पार्टी के नेता प्रियंका गांधी के फैसलों को ज्यादा महत्व देते हैं। यहां तक कि सोनिया गांधी भी अपनी बेटी के साथ सलाह मशवरा करती हैं।
वैसे ये कोई पहला मामला नहीं था जब राहुल गांधी का कमजोर नेतृत्व सामने आया है। इससे पहले कर्नाटक में भी सरकार बनाने की जदोजहद में कुछ ऐसा ही देखने को मिला था। आईएनसी को कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बड़ी जीत की उम्मीद थी लेकिन इसके विपरीत राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी को करारी हार का मुंह देखना पड़ा था। कर्नाटक में राहुल गांधी अपनी 47 रलियों के बावजूद जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने और कांग्रेस के पक्ष में मतदाताओं को लुभाने में नाकाम रहे थे। यही कारण था कि कांग्रेस के कार्यकर्ताओं व नेताओं ने प्रियंका गांधी वाड्रा के फैसले को ज्यादा महत्व दिया था। जेडीएस के साथ गठबंधन का फैसला प्रियंका गांधी वाड्रा का ही था जिसे कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए पार्टी के सभी नेताओं ने स्वीकार किया था। स्पष्ट रूप से ये प्रियंका गांधी ही थीं जिस वजह से कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी सरकार बनाने में कामयाब हो पायी थी। प्रियंका गांधी वाड्रा कभी राजनीतिक स्तर पर खुलकर सामने नहीं आयीं हैं। उन्होंने हमेशा ही अपने भाई और माँ के लिए प्रचार करने के विकल्प को चुना है।
हालांकि, बार बार उनके हस्तक्षेप से राजनीतिक गलियारों में ये खबर जरुर फैलती है कि वो अब सक्रीय राजनीति का हिस्सा बनने वाली हैं। हालांकि, हर बार उन्होंने इस तरह की अटकलों पर विराम लगाते हुए कहा है कि वो फिलहाल सक्रिय राजनीति का हिस्सा नहीं बनेंगी।
फिर भी जिस तरह से प्रियंका गांधी इन दिनों तीनों ही राज्य के मामलों में हस्तक्षेप कर रही हैं उससे एक बार फिर से उनके सक्रीय राजनीति में कदम रखने की चर्चा तेज हो गयी है। कई लोगों का ये तक कहना है कि प्रियंका गांधी अब राहुल गांधी के निर्णयों को सशक्त बनाने के लिए राजनीति में कदम रखेंगी लेकिन इससे राहुल गांधी मजबूत हो न हो लेकिन हों कांग्रेस पार्टी जरुर एक बार फिर से अपनी सियासी पकड़ को मजबूत कर सकेगी।