कोई भी विश्लेषक पूरे यकीन के साथ कह पाने की स्थिति में नहीं है कि इस बार बाजी कौन मारेगा
Javed Anis BHOPAL siyasat.net
चुनाव और एग्जिट पोल के बाद भी मध्यप्रदेश की तस्वीर साफ नहीं हो सकी है, इस बार यहां का चुनावी माहौल काफी जटिल और उलझा हुआ दिखाई पड़ता है. हालाँकि हमेशा की तरह इस बार भी कांग्रेस और भाजपा के बीच ही सीधी लड़ाई है. लेकिन पिछले तीन चुनावों की तरह इस बार की तस्वीर बिलकुल ही अलग नजर आ रही है. भाजपा के लिये चौथी बार वापसी मुश्किल है तो कांग्रेस के लिए भी राह आसान नहीं है, जहां एक तरफ भाजपा एंटी-इनकम्बेंसी से जूझ रही है तो वहीँ कांग्रेस को आपसी खींचतान का सामना करना पड़ रहा है. सियासत में किसी भी सरकार के खिलाफ नाराजगी ही काफी नहीं है बल्कि इसके बरक्स जनता के सामने ठोस विकल्प प्रस्तुत करने की भी जरूरत पड़ती है. मप्र में जनता के बीच बदलाव के मूड साफतौर पर नजर आ रहा है लेकिन कांग्रेस इसे कितना भुना पायी है इसे देखना बाकी है.
मध्यप्रदेश में कांग्रेस पन्द्रह सालों बाद पहली बार सत्ता में वापसी के जतन करते हुये दिखायी पड़ रही है. कमलनाथ की अगुवाई में मध्यप्रदेश कांग्रेस में कसावट देखने को मिली है, दूसरी तरफ लगातार तीन बार से मुख्यमंत्री रहने और भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों के बावजूद शिवराजसिंह चौहान ही कांग्रेस के लिये सबसे बड़ी चुनौती थे ऐसे में कांग्रेस कमलनाथ और सिंधिया की जोड़ी को सामने रखते हुये चुनावी मैदान में उतरी, दिग्विजय सिंह को परदे के पीछे रखते हुये उन्हें चुनावी अभियान से दूर रखा गया.इन सबके बीच राहुल गांधी भाजपा-संघ के इस दुसरे प्रयोगशाला में नरम हिन्दुतत्व के रास्ते पर आगे बढ़ते हुये माहौल बनाने में काफी हद तक कामयाब रहे इस दौरान उनके निशाने पर मुख्य रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही रहे.संगठन, विशाल कार्यकर्ता नेटवर्क और मुख्यमंत्री के तौर पर किसी एक चेहरे के अभाव में कांग्रेस का सबसे बड़ा सहारा सरकार के खिलाफ असंतोष है. अगर इस बार कांग्रेस इस असंतोष को भुनाने में नाकाम साबित हुई तो मध्यप्रदेश में उसके अस्तित्व पर भी सवाल खड़ा हो जायेगा.
कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद के मुख्य रूप से दो दावेदार हैं पहले दावेदार प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ और दूसरे दावेदार प्रचार अभियान समिति के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया. अजय सिंह और अरुण यादव जैसे नेता भी कतार में उम्मीद लगाये बैठे हैं. इन सबके बीच समन्वय समिति के प्रमुख दिग्विजय सिंह भले ही खुद को मुख्यमंत्री के रेस से बाहर बता रहे हों लेकिन अंत समय में वे अपने पत्ते खोल सकते हैं, दावेदारों के पक्ष में उनके वीटो पावर से इनकार नहीं किया जा सकता है. मुख्यमंत्री के दावेदार के तौर पर ज्योतिरादित्य सिंधिया की सबसे बड़ी समस्या अपने सामंती खोल से बाहर ना निकल पाना और दिग्विजय सिंह के साथ उनकी पुरानी अदावत है. दिग्विजय सिंह किसी भी कीमत पर नहीं चाहेंगें कि ज्योतिरादित्य सिंधिया मुख्यमंत्री बनें.
दूसरी तरफ कमलनाथ के लिये यह पहला और आखिरी मौका है. लेकिन उनके लिये मध्यप्रदेश का यह चुनाव बस इतना भर नहीं है अगर वे मध्यप्रदेश में कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने में कामयाब हुये तो वे पार्टी में राहुल गाँधी के सबसे बड़े संकट मोचक के तौर पर उभर कर सामने आयेंगें और पार्टी में उनका कद बहुत बढ़ जायेगा.
अजय सिंह को अपने भाग्य और दिग्विजय सिंह का सहारा है जबकि अरुण यादव इतिहास दोहराये जाने का इंतजार कर रहे होंगें. दरअसल कांग्रेस ने इस बार अरुण यादव को शिवराज के खिलाफ बुधनी विधानसभा क्षेत्र से मुकाबले में उतारा है. मुख्यमंत्री बनने से पहले कभी भाजपा ने शिवराज को भी तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के मुकाबले मैदान में उतारा था. हालाकिं इस मुकाबले में शिवराज हार गये थे लेकिन इसके चंद सालों बाद ही ऐसी परिस्थितयां बनीं कि शिवराज मुख्यमंत्री बना दिये गये. अरुण यादव के समर्थक भी कुछ ऐसी ही उम्मीद पाले हुये हैं.
इधर 2003 से सत्ता पर काबिज भाजपा के लिए लगातार चौथी बार सरकार बनाना आसान नहीं है. इस बार कांग्रेस की तरफ से उसे कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा है. एक तरफ जहां मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ लोगों में गुस्सा देखने को मिल रहा है वहीँ किसानों और सवर्णों की सरकार के प्रति नाराजगी भी उसे परेशान किये हुये है. चुनाव के दौरान मध्यप्रदेश के मतदाता की ख़ामोशी भी भाजपा को परेशान किये हुये है .
इस चुनाव में भाजपा की सारी उम्मीदें मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान पर ही टिकी हुई हैं. भाजपा की तरफ से शिवराज अकेले ही पूरे प्रदेश में चुनावी कमान संभाले हुये थे, पहले अपने जन आशीर्वाद यात्रा के माध्यम से उन्होंने लगभग पूरे प्रदेश को नाप दिया था फिर उसके बाद उन्होंने पूरे प्रदेश में करीब डेढ़ सौ सभायें की हैं .. शिवराज पिछले 13 सालों से मुख्यमंत्री है आज प्रदेश की राजनीति में वही सबसे ज्यादा जाना-पहचाना चेहरे हैं, उनकी सहज और सरल छवि ही उनकी सबसे बड़ी पूंजी और ताकत है.
शायद इसी वजह से इस बार भी भाजपा ने शिवराज चौहान के सहारे ही चुनावी मैदान में उतरने का फैसला किया था उन्हीं के नाम पर प्रमुखता से वोट मांगे गये हैं. मध्यप्रदेश के चुनाव में भाजपा की तरफ से इस बार शिवराज सिंह चौहान ही सबसे बड़े मुद्दे हैं. ऐसे में वे अगर भाजपा को चौथी बार चुनाव जिताने में कामयाब हो जाते हैं तो इसका श्रेय भी सिर्फ उन्हीं के खाते में दर्ज होगा और इसके साथ ही भाजपा में उनका कद भी बढ़.
मध्यप्रदेश का यह चुनाव सिर्फ पार्टियों ही नहीं दो नेताओं के लिये भी बहुत अहम साबित होने वाला है. एक तरफ यह शिवराजसिंह चौहान के राजनीतिक जीवन की दिशा तय करने वाला चुनाव है तो वहीं ये राहुल गांधी के राजनीतिक कैरियर को नया पंख दे सकता है. यह चुनाव शिवराज सिंह चौहान के राजनीतिक जीवन का सबसे मुश्किल चुनाव साबित होने जा रहा है. इसमें चाहे उनकी हार हो या जीत चुनाव के नतीजे उनके सियासी कैरियर के सबसे बड़े टर्निंग पॉइंट होगा. दरअसल मध्यप्रदेश का यह चुनाव भाजपा के अंदरूनी राजनीति को भी प्रभावित करने वाली है. अगर शिवराज अपने दम पर इस चुनाव को जीतने में कामयाब होते हैं तो पार्टी में उनका कद बढ़ जायेगा. ऐसे में पहले से ही शिवराज को लेकर असहज दिखाई पड़ रहे भाजपा के मौजूदा आलाकमान की असहजता शिवराज के इस बढ़े कद से और बढ़ सकती है. भाजपा की ताकतवर जोड़ी को मजबूत क्षत्रप पसंद नहीं है और वे किसी भी उस संभावना को एक हद से आगे बढ़ने नहीं देंगें जो आगे चलकर उनके लिये चुनौती पेश कर सकें.
ऐसे में यह बात पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि अगर शिवराज भाजपा को यह चुनाव जिताने में कामयाब हो गये तो ही मुख्यमंत्री बनेंगे और अगर मुख्यमंत्री बन भी गयी तो 2019 में होने लोकसभा चुनाव के बाद वे इस पद पर बने रहेंगें, इसको लेकर भी संदेह किया जा सकता है. 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी और अमित शाह को मध्यप्रदेश में शिवराज की जरूरत पड़ेगी लेकिन इसके बाद मध्यप्रदेश में भाजपा की तरफ से शिवराज का विकल्प पेश किया जा सकता है जिससे भाजपा के इस गढ़ पर मोदी-शाह का पूरा नियंत्रण स्थापित किया जा सके और अगर शिवराज यह चुनाव हारते हैं तो उन्हें इससे पहले ही हाशिये पर धकलने की पूरी कोशिश की जायेगी.
कुल मिलकर मध्यप्रदेश में चुनावी परिदृश्य इतना उलझा और बिखरा हुआ नजर आ रहा है कि इसको लेकर अंत समय तक कोई पेशगोई करना आसान नहीं है, कोई भी विश्लेषक पूरे यकीन के साथ कह पाने की स्थिति में नहीं है कि इस बार बाजी कौन मारेगा.